स्वस्थ शिशु की उत्पत्ति के लिए यह जरुरी है कि जीवनोत्पत्ति का कारक वीर्य भी शुद्ध हो।अगर वीर्य शुद्ध नही है तो या तो शिशु उत्पत्ति होगी ही नही और अगर किसी कारण हो भी गयी तो यह रोगी या कमजोर बच्चा होगा जिसके स्वस्थ जीवन की कल्पना बेकार की बात है।हम वैसे भी जानते हैं कि कमजोर बीज की फसल कमजोर ही होगी।अशुद्ध वीर्य से या तो शिशुउत्पत्ति होगी ही नही याऔर अगर हुआ भी तो उत्पन्न शिशु रोगी नपुंसक एवं विकृत रुप वाला होगा।ऐसा वीर्य स्वयं पुरुष के लिए तो हानिकारक है ही यह स्त्री के लिए भी हानिकारक होता है।ऐसे वीर्य से उत्पन्न संतान खुद तो बीमार रहेगी ही साथ ही समाज व देश के लिए भी दुःखदायी होती है इसी कारण से पुराकाल में जब हमारे देश के कुछ हिस्सों मे जहाँ गणतंत्र शाशन प्रणाली विकसित थी वहाँ बच्चा राष्ट्र की संम्पत्ति होता था और माँ बाप के पास वह कुछ समय के लिए राष्ट्र की धरोहर के रुप में रहता था।औऱ बच्चे के जन्म के समय ही उसके कुछ परीक्षण होते थे उन परीक्षणों पर खरा उतरने पर ही वह जीवित रखा जाता था।देखने में यह प्रथा कितनी ही क्रूर क्यों न लगे किन्तु आजकल रोगों से ग्रसित अनेको बच्चों या बड़ों की दया मृत्यू की माँग से कहीं ज्यादा श्रेय़स्कर थी क्योंकि एक असहाय पीड़ा ग्रस्त रोगी बच्चा या प्रोण खुद तो असहनीय पीड़ा से कराहता तो है ही साथ ही संपूर्ण परिवार भी उसी की तीमार दारी व चिन्ता में खुद कंगाल होता जाता है और मानसिक पीड़ा को झेलता है।
आयुर्वेद के ग्रंथ शुक्र से संबधित सामिग्री से भरे पड़े हैं आयुर्वेदज्ञों ने इस विषय पर पर्याप्त शोध ,चिन्तन,अध्ययन करके उस शोध का वर्णन किया है।
भगवान ने प्रकृति के कार्य निश्पादन के लिए कई प्रकार की सृष्टि की किन्तु प्रत्येक बार असफल रहने पर वृह्म जी को भगवान शिव ने अपना अर्धनारीश्वर रुप दिखाया तब जाकर वह्मा जी ने इस नर नारी वाली मैथुनी सृष्टि की रचना की जिससे सृष्टि कार्य आगे वढ़ा एसा उल्लेख हमारे पुराणों में मिलता है हमारे ग्रन्थ किसी विना सिर पैर की बात न लेकर सत्य वैज्ञानिक सिद्धांतो का साहित्यिक उल्लेख करते हैं।तो वृह्मा जी ने इसी कारण इस मैथुनी सृष्टि का निर्माण किया जिससे सतत जीवधारी बने रहें और जन्म मरण का क्रम चलता रहैं जिससे कि संसार से जीवों कासम्पूर्ण विनाश न हो सके।
तो इस सतत जीव निर्माण को करने के लिए प्रभु ने जीवों को कुछ विशेष अंग भी प्रदान किये और उनकी क्रियाविधि भी निर्दिष्ट की ।पिछले लेख में मैने आपको पुरुष के वाह्य जनन अंगो की रचना का चित्रसहित वर्णन किया था। आज मैं आपको उनकी शुक्र निर्माण की क्रिया विधि बताने जा रहा हूँ।
इस काम में आने वाले अंगो की जानकारी प्राप्त करने के लिए अण्डकोष की आन्तरिक संरचना व क्रिया विधि को पहले समझ लें
अण्ड कोष-लिंग की जड़ में पतली त्वचा की एक थैली के आकार की संरचना होती है जिसे अण्डकोष कहते हैं।यह पुरुष जननांग का प्रधान अंग है।और इसी में शु्क्र का निर्माण होता है।इसके दो अंश या भाग हैं एक बायां व दूसरा दायां।और दोनो भाग इस थैली में लटकते रहते हैं।अंडकोष की सम्पूर्ण त्वचा पर सिकुड़न सी होती है।
इसका कारण यह है कि अण्डकोष की त्वचा के भीतर ही नीचे कुछ मांस सा लटका रहता है ।जिससे अण्डकोषों को मौसम के अनुरुप वनाए रखता है जैसे गर्मी के कारण मांस की संकोचन शीलता घटती है तो यही थैली कुछ लटकी सी व बड़ी मालुम होती है।दोनो ओर के अण्डकोष के मध्य से सीवन सा रहती है जो लिंग की जड़ से मल द्वार तक फैली रहती है।
अण्ड कोष के भीतर दो अण्डे जैसी ग्रंथियां पायी जाती हैं उन्हैं ही शुक्र ग्रंथियां कहते हैं।अण्ड के पिछले किनारे पर एक लम्वा सा पोण्डसा होता है इसे उपाण्ड कहते हैं।यह उपाण्ड कई नलिकाओं द्वारा अण्ड से मिला होता है।
प्रत्येक अण्ड आवर झिल्ली द्वारा ढका होता है।यह दोनो अण्ड दो रज्जुओं या डोरियों के द्वारा नाड़ियों के सहारे अण्डकोष में लटके रहते हैं।इन डोरियों को ही अण्ड धारण करने के कारण अण्ड धारक रज्जु या spirmatte-eord कहते हैं।यह मोटी रस्सी या रज्जु बहुत सी नाड़ियों तथा शुक्र प्रणालियों की बनी होती है इसलिए इसे शुक्र रज्जु भी कह देते हैं।प्रत्येक अण्ड जिसे हम शुक्र ग्रंथि भी कह सकते हैं कितने ही सोत्रिक तंतुओं से बना होता है।और इसमें अनेकों कोष्ठ या कोठे वने होते हैं।प्रत्येक ग्रंथि में एसे 300-400 कोष्ठ होते हैं।जिन्है शुक्र कोष कहते हैं।प्रत्येक शुक्र कोष में कुण्डली के आकार की मुडी हुयी नलियाँ होती हैं ये लगभग आठ सौ या नौ सौ होती है।इनकी लम्वाई साड़े चार से छः फिट तक होती है।इन्हीं शिराओं या नलियों से ही उपाण्ड का निर्माण होता है इन्ही सूक्ष्म नलिकाओं या शिराओं को ही सम्मिलित रुप से शुक्र प्रणाली कहा जाता है।और इनसे जो रस स्रावित होता है।वही वीर्य या शुक्र है।
उपर वर्णन की गयी प्रणालियाँ आगे जाकर एक नाली में परिवर्तित हो जाती है जिसकी लम्वाई अधिकतर 3 फीट के करीव होती है।इसे शु्क्र नलिका कहते हैं।यह घूम फिर कर मूत्राशय के नीचे व मलाशय के ऊपर समाप्त हो जाती है शुक्र नाली के नीचे और दोनो अण्डों के ऊपर एक अधिक लम्बी नाली जुड़ गयी है,यही उपाण्ड या उपकोष कहलाती है।
क्रमशः----------------------------------
आयुर्वेद के ग्रंथ शुक्र से संबधित सामिग्री से भरे पड़े हैं आयुर्वेदज्ञों ने इस विषय पर पर्याप्त शोध ,चिन्तन,अध्ययन करके उस शोध का वर्णन किया है।
भगवान ने प्रकृति के कार्य निश्पादन के लिए कई प्रकार की सृष्टि की किन्तु प्रत्येक बार असफल रहने पर वृह्म जी को भगवान शिव ने अपना अर्धनारीश्वर रुप दिखाया तब जाकर वह्मा जी ने इस नर नारी वाली मैथुनी सृष्टि की रचना की जिससे सृष्टि कार्य आगे वढ़ा एसा उल्लेख हमारे पुराणों में मिलता है हमारे ग्रन्थ किसी विना सिर पैर की बात न लेकर सत्य वैज्ञानिक सिद्धांतो का साहित्यिक उल्लेख करते हैं।तो वृह्मा जी ने इसी कारण इस मैथुनी सृष्टि का निर्माण किया जिससे सतत जीवधारी बने रहें और जन्म मरण का क्रम चलता रहैं जिससे कि संसार से जीवों कासम्पूर्ण विनाश न हो सके।
तो इस सतत जीव निर्माण को करने के लिए प्रभु ने जीवों को कुछ विशेष अंग भी प्रदान किये और उनकी क्रियाविधि भी निर्दिष्ट की ।पिछले लेख में मैने आपको पुरुष के वाह्य जनन अंगो की रचना का चित्रसहित वर्णन किया था। आज मैं आपको उनकी शुक्र निर्माण की क्रिया विधि बताने जा रहा हूँ।
इस काम में आने वाले अंगो की जानकारी प्राप्त करने के लिए अण्डकोष की आन्तरिक संरचना व क्रिया विधि को पहले समझ लें
अण्ड कोष-लिंग की जड़ में पतली त्वचा की एक थैली के आकार की संरचना होती है जिसे अण्डकोष कहते हैं।यह पुरुष जननांग का प्रधान अंग है।और इसी में शु्क्र का निर्माण होता है।इसके दो अंश या भाग हैं एक बायां व दूसरा दायां।और दोनो भाग इस थैली में लटकते रहते हैं।अंडकोष की सम्पूर्ण त्वचा पर सिकुड़न सी होती है।
इसका कारण यह है कि अण्डकोष की त्वचा के भीतर ही नीचे कुछ मांस सा लटका रहता है ।जिससे अण्डकोषों को मौसम के अनुरुप वनाए रखता है जैसे गर्मी के कारण मांस की संकोचन शीलता घटती है तो यही थैली कुछ लटकी सी व बड़ी मालुम होती है।दोनो ओर के अण्डकोष के मध्य से सीवन सा रहती है जो लिंग की जड़ से मल द्वार तक फैली रहती है।
अण्ड कोष के भीतर दो अण्डे जैसी ग्रंथियां पायी जाती हैं उन्हैं ही शुक्र ग्रंथियां कहते हैं।अण्ड के पिछले किनारे पर एक लम्वा सा पोण्डसा होता है इसे उपाण्ड कहते हैं।यह उपाण्ड कई नलिकाओं द्वारा अण्ड से मिला होता है।
प्रत्येक अण्ड आवर झिल्ली द्वारा ढका होता है।यह दोनो अण्ड दो रज्जुओं या डोरियों के द्वारा नाड़ियों के सहारे अण्डकोष में लटके रहते हैं।इन डोरियों को ही अण्ड धारण करने के कारण अण्ड धारक रज्जु या spirmatte-eord कहते हैं।यह मोटी रस्सी या रज्जु बहुत सी नाड़ियों तथा शुक्र प्रणालियों की बनी होती है इसलिए इसे शुक्र रज्जु भी कह देते हैं।प्रत्येक अण्ड जिसे हम शुक्र ग्रंथि भी कह सकते हैं कितने ही सोत्रिक तंतुओं से बना होता है।और इसमें अनेकों कोष्ठ या कोठे वने होते हैं।प्रत्येक ग्रंथि में एसे 300-400 कोष्ठ होते हैं।जिन्है शुक्र कोष कहते हैं।प्रत्येक शुक्र कोष में कुण्डली के आकार की मुडी हुयी नलियाँ होती हैं ये लगभग आठ सौ या नौ सौ होती है।इनकी लम्वाई साड़े चार से छः फिट तक होती है।इन्हीं शिराओं या नलियों से ही उपाण्ड का निर्माण होता है इन्ही सूक्ष्म नलिकाओं या शिराओं को ही सम्मिलित रुप से शुक्र प्रणाली कहा जाता है।और इनसे जो रस स्रावित होता है।वही वीर्य या शुक्र है।
उपर वर्णन की गयी प्रणालियाँ आगे जाकर एक नाली में परिवर्तित हो जाती है जिसकी लम्वाई अधिकतर 3 फीट के करीव होती है।इसे शु्क्र नलिका कहते हैं।यह घूम फिर कर मूत्राशय के नीचे व मलाशय के ऊपर समाप्त हो जाती है शुक्र नाली के नीचे और दोनो अण्डों के ऊपर एक अधिक लम्बी नाली जुड़ गयी है,यही उपाण्ड या उपकोष कहलाती है।
क्रमशः----------------------------------
badhiya rachna . pls remove word verification
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