bhaarateey shaasakon ke shiramaur raaja vikramaadity ka daravaar nau ratnon (patthar nahee apitu mahaamaanavon ) se damakata tha aur jinakee nakal kabhee akabar ne karake apane daravaar mein bhee nau ratnon ko sushobhit kiya.
महाभारत युद्ध के बाद महाराज परीक्षित व जनमेयजय के अतिरिक्त अगर कोई शासक सर्वाधिक विख्यात है तो वह है महान राजा विक्रमादित्य। वे इतने महान थे कि इनके बाद अनेकों राजाओं ने अपने नाम के पीछे विक्रमादित्य की उपाधि धारण की और तो और कई राजाओं ने अपने पुत्रों का नाम भी इनके ही नाम पर कर दिया। जिसके कारण इतिहास में अनेकों विक्रमादित्य नाम के शासक दिखाई देते हैं और कई शासक तो वास्तव में बहुत ही महान हुये जिनकी उपाधि विक्रमादित्य की थी जैसे भारतीय इतिहास का नेपोलियन कहे जाने वाले महाराज समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य। लैकिन आज हम वीर विक्रमादित्य की बात कर रहे हैं जो उज्जैन के राजा थे क्योंकि इन्हौने भारत को विजित करने वाली एक जाति शकों का भारत से पूर्णतया अंत करके भारत को अनेकों वर्षों तक निष्कंटक कर दिया था। यह शक नाम की विरादरी अत्यंत ही राक्षसी प्रवृति की थी और इसने भारत पर लगभग 300 वर्षों तक शासन किया और तो और इस जाति के ज्यादातर लोगों ने भारतीय भगवान शिव को मानने वाले एक मत शैव को धारण करके भारत में अनेकों मंदिरो का निर्माण भी कराया था और वे क्षद्म रूप से भारतीय के रुप में ही भारतीय लोगों के साथ घुलमिल कर भारतीय राज्य का उपभोग करने लगे थे चहुं दिशा में उन्हीं के राज्य दिखाई देने लगे थे एसे समय में राजा विक्रमादित्य ने उन शकों का समूल नाश करने का वीड़ा उठाया और भारतीय समाज से उन्हैं अलग थलग कर उनको भारत से उखाड़ फैंका जो किसी चमत्कार से कम नही था। ये महान सम्राट जिनका नाम विक्रमादित्य था भारतीय समाज में इस प्रकार प्रतिष्ठित हैं कि लोक लीलाओं और कथाओं में इनका नाम आता है या तो भारत में राम राज्य सर्वाधिक प्रचलित है दूसरा सर्वाधिक प्रचलित राज अगर है तो वह है राजा विक्रमादित्य का राज्य उन्हौने राज्य की भलाई के लिए अपना कभी ख्याल ही नही किया हर समय समाज की भलाई में ही कार्य किया। आइये इनके बारे में जानते हैं इनका इतिहास ।
#उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य एक चक्रवर्ती सम्राट थे। इनका (विक्रमादित्य) वास्तविक नाम विक्रम सेन था। विक्रम और वेताल तथा सिंहासन बत्तीसी नामक कहानियां महान सम्राट विक्रमादित्य से ही जुड़ी हुई कहानियाँ है।
#महान सम्राट विक्रमादित्य का परिचय :
विक्रम संवत के आधार पर महान सम्राट विक्रमादित्य आज से 2288 वर्ष पूर्व हुए थे। ये नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन के पुत्र थे और गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे।( राजा गंधर्व सेन का एक मंदिर मध्यप्रदेश के सोनकच्छ के आगे गंधर्वपुरी में बना हुआ है। यह गांव बहुत ही रहस्यमयी गांव है। उनके पिता को महेंद्रादित्य भी कहते थे। उनके और भी नाम थे जैसे गर्द भिल्ल, गदर्भवेष।)
गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। विक्रमसेन की माता का नाम सौम्यदर्शना था इन्हें वीरमती और मदनरेखा के नाम से भी जाना जाता था। विक्रमसेन की एक बहन थी जिसे मैनावती कहते थे। उनके भर्तृहरि के अलावा शंख और अन्य भाई भी थे।
इनकी पांच पत्नियां मलयावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल और चिल्लमहादेवी थी। इनके दो पुत्र थे विक्रमचरित और विनयपाल और दो ही पुत्रियां थीं प्रियंगु मंजरी (विद्योत्तमा) और वसुंधरा। गोपीचंद नाम का उनका एक भानजा था। विक्रमसेन या विक्रमादित्य के प्रमुख मित्रों में भट्टमात्र का नाम आता है। इनके राज पुरोहित त्रिविक्रम और वसुमित्र थे। मंत्री भट्टि और बहसिंधु थे।सम्राट विक्रमादित्य के सेनापति विक्रमशक्ति और चंद्र थे।
सम्राट विक्रमादित्य का जन्म कलि काल के 3000 वर्ष बीत जाने पर ईसा से 101 वर्ष पूर्व हुआ था । उन्होंने 100 वर्ष तक राज किया। सन्दर्भ -(गीता प्रेस, गोरखपुर भविष्यपुराण, पृष्ठ 245)।
सम्राट विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे इनके दरबार नौ विद्वानों विरजमान रहते थे जिन्हेैं नवरत्न रहते थे। विक्रमादित्य महान पराक्रमी शासक थे जिन्होंने महाशक्तिशाली शकों को परास्त किया था।
लोक कथाओं व इतिहास के अनुसार सम्राट विक्रमादित्य अपने राज्य की जनता के कष्टों और उनके हालचाल जानने के लिए छद्मवेष धारण कर नगर भ्रमण करते थे। जिससे कि न्याय व्यवस्था वरकरार रहे इन्हौंने न्याय व्यवस्था को इतना सुदृढ़ कर रखा था कि आज तक लोग इनका प्रमाण देते देखे जाते हैं। इतिहास में वे सबसे लोकप्रिय और न्यायप्रिय राजाओं में से प्रमुख नरेश के रुप में प्रतिष्ठित हैं।
कहा जाता है कि मालवा में विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि का शासन था। भर्तृहरि के शासन काल में मालवा में शको का आक्रमण बढ़ गया था।सम्राट भर्तृहरि ने एसे में वैराग्य धारण कर जब राज्य त्याग दिया तो महान राजा विक्रमादित्य ने मालवा का शासन संभाला और ईसा पूर्व 57-58 में शको को अपने शासन क्षेत्र से बहार खदेड़ दिया। और समाज व्यवस्था को मजबूत किया, इसी की याद में उन्होंने विक्रम संवत की शुरुआत कर अपने राज्य के विस्तार का आरंभ किया। विक्रमादित्य ने भारत की भूमि को विदेशी शासकों से मुक्ति कराने के लिए एक वृहत्तर अभियान चलाया। उन्होंने अपनी सेना को पुनः संगठित किया। जिससे उनकी सेना विश्व की सबसे शक्तिशाली सेना बन गई ,इसके बाद इन्हौने भारत की सभी दिशाओं में एक अभियान चलाकर भारत को विदेशियों और अत्याचारी राजाओं से मुक्ति कर एक छत्र शासन को कायम किया।
महाराज विक्रमादित्य एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व :
कल्हण की 'राजतरंगिणी' के अनुसार 14 ई. के आसपास कश्मीर में अंध्र युधिष्ठिर वंश के राजा हिरण्य के नि:संतान मर जाने पर अराजकता फैल गई थी। जिसको देखकर वहां के मंत्रियों की सलाह से उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने मातृगुप्त को कश्मीर का राज्य संभालने के लिए भेजा था। नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसापूर्व पहली शताब्दी) में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है।राजा विक्रम का भारत की संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विवरण मिलता है। उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।
विक्रमादित्य के नवरत्न ः मध्यप्रदेश में स्थित उज्जैन-महानगर के महाकाल मन्दिर के पास विक्रमादित्य टीला है। वहाँ विक्रमादित्य के संग्रहालय में नवरत्नों की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं।
विक्रमादित्य के दरबार के नौ रत्नों के चित्र ----
भारतीय परंपरा के अनुसार धन्वन्तरि, क्षपनक, अमरसिंह, शंकु, खटकरपारा, कालिदास, वेतालभट्ट (या (बेतालभट्ट), वररुचि और वराहमिहिर उज्जैन में विक्रमादित्य के राज दरबार का अंग थे। कहते हैं कि राजा के पास "नवरत्न" कहलाने वाले नौ ऐसे विद्वान थे।कालिदास प्रसिद्ध संस्कृत राजकवि थे। वराहमिहिर उस युग के प्रमुख ज्योतिषी थे, जिन्होंने विक्रमादित्य की बेटे की मौत की भविष्यवाणी की थी। वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे। माना जाता है कि उन्होंने विक्रमादित्य को सोलह छंदों की रचना "नीति-प्रदीप" ("आचरण का दीपक) का श्रेय दिया है।
विक्रमार्कस्य आस्थाने नवरत्नानिधन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिंहः शंकूवेताळभट्टघटकर्परकालिदासाः।ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेस्सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥
विक्रम संवत के प्रवर्तक :
देश में अनेक विद्वान ऐसे हुए हैं, जो विक्रम संवत को उज्जैन के राजा विक्रमादित्य द्वारा ही प्रवर्तित मानते हैं। इस संवत के प्रवर्तन की पुष्टि ज्योतिर्विदाभरण ग्रंथ से होती है, जो कि 3068 कलि अर्थात 34 ईसा पूर्व में लिखा गया था। इसके अनुसार विक्रमादित्य ने 3044 कलि अर्थात 57 ईसा पूर्व विक्रम संवत चलाया।
अरब तक फैला था विक्रमादित्य का शासन :
महाराजा विक्रमादित्य का सविस्तार वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है। उस वक्त उनका शासन अरब तक फैला था। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे।
इतिहासकारों के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान, इराक और अरब में भी था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि "जरहाम किनतोई" ने अपनी पुस्तक 'सायर-उल-ओकुल' में किया है। पुराणों और अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार यह पता चलता है कि अरब और मिस्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे।
तुर्की के इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्ध लायब्रेरी "मकतब-ए-सुल्तानिया" में एक ऐतिहासिक ग्रंथ है 'सायर-उल-ओकुल'। उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि '…वे लोग भाग्यशाली हैं, जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम के राज्य में जीवन व्यतीत किया। वह बहुत ही दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था, जो हरेक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था। ...उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया, अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फैल सके। इन विद्वानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये तमाम विद्वान राजा विक्रमादित्य के निर्देश पर अपने धर्म की शिक्षा देने यहां आए…।'
#अन्य सम्राट जिनके नाम के आगे विक्रमादित्य लगा है:-
जैसे श्रीहर्ष, शूद्रक, हल, चंद्रगुप्त द्वितीय, शिलादित्य, यशोवर्धन आदि। दरअसल, आदित्य शब्द का अभिप्राय सूर्य देव से है । बाद में विक्रमादित्य की प्रसिद्धि के बाद राजाओं को 'विक्रमादित्य उपाधि' दी जाने लगी।
विक्रमादित्य के पहले और बाद में और भी विक्रमादित्य हुए हैं जिसके चलते भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद 300 ईस्वी में समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य हुए।
एक विक्रमादित्य द्वितीय 7वीं सदी में हुए, जो विजयादित्य (विक्रमादित्य प्रथम) के पुत्र थे। विक्रमादित्य द्वितीय ने भी अपने समय में चालुक्य साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण बनाए रखा। विक्रमादित्य द्वितीय के काल में ही लाट देश (दक्षिणी गुजरात) पर अरबों ने आक्रमण किया। विक्रमादित्य द्वितीय के शौर्य के कारण अरबों को अपने प्रयत्न में सफलता नहीं मिली और यह प्रतापी चालुक्य राजा अरब आक्रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा करने में समर्थ रहा।
पल्लव राजा ने पुलकेसन को परास्त कर मार डाला। उसका पुत्र विक्रमादित्य, जो कि अपने पिता के समान महान शासक था, गद्दी पर बैठा। उसने दक्षिण के अपने शत्रुओं के विरुद्ध पुन: संघर्ष प्रारंभ किया। उसने चालुक्यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुन: प्राप्त किया। यहां तक कि उसका परपोता विक्रमादित्य द्वितीय भी महान योद्धा था। 753 ईस्वी में विक्रमादित्य व उसके पुत्र का दंती दुर्गा नाम के एक सरदार ने तख्ता पलट दिया। उसने महाराष्ट्र व कर्नाटक में एक और महान साम्राज्य की स्थापना की, जो राष्ट्र कूट कहलाया।
#विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 15वीं सदी में सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य 'हेमू' हुए। सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के बाद 'विक्रमादित्य पंचम' सत्याश्रय के बाद कल्याणी के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। उन्होंने लगभग 1008 ई. में चालुक्य राज्य की गद्दी को संभाला। भोपाल के राजा भोज के काल में यही विक्रमादित्य थे।
विक्रमादित्य पंचम ने अपने पूर्वजों की नीतियों का अनुसरण करते हुए कई युद्ध लड़े। उसके समय में मालवा के परमारों के साथ चालुक्यों का पुनः संघर्ष हुआ और वाकपतिराज मुञ्ज की पराजय व हत्या का प्रतिशोध करने के लिए परमार राजा भोज ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसे परास्त किया, लेकिन एक युद्ध में विक्रमादित्य पंचम ने राजा भोज को भी हरा दिया था।
राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नराजा विक्रमादित्य के दरबार में मौजूद नवरत्नों में उच्च कोटि के कवि, विद्वान, गायक और गणित के प्रकांड पंडित शामिल थे, जिनकी योग्यता की चर्चा देश-विदेश में होती थी।
ये हैं नवरत्न –
1–धन्वन्तरि-
नवरत्नों में इनका स्थान गिनाया गया है। इनके रचित नौ ग्रंथ पाये जाते हैं। वे सभी आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र से सम्बन्धित हैं। चिकित्सा में ये बड़े सिद्धहस्त थे। आज भी किसी वैद्य की प्रशंसा करनी हो तो उसकी ‘धन्वन्तरि’ से उपमा दी जाती है।
अरब तक फैला था विक्रमादित्य का शासन :
महाराजा विक्रमादित्य का सविस्तार वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है। उस वक्त उनका शासन अरब तक फैला था। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे।
इतिहासकारों के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान, इराक और अरब में भी था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि "जरहाम किनतोई" ने अपनी पुस्तक 'सायर-उल-ओकुल' में किया है। पुराणों और अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार यह पता चलता है कि अरब और मिस्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे।
तुर्की के इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्ध लायब्रेरी "मकतब-ए-सुल्तानिया" में एक ऐतिहासिक ग्रंथ है 'सायर-उल-ओकुल'। उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि '…वे लोग भाग्यशाली हैं, जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम के राज्य में जीवन व्यतीत किया। वह बहुत ही दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था, जो हरेक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था। ...उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया, अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फैल सके। इन विद्वानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये तमाम विद्वान राजा विक्रमादित्य के निर्देश पर अपने धर्म की शिक्षा देने यहां आए…।'
#अन्य सम्राट जिनके नाम के आगे विक्रमादित्य लगा है:-
जैसे श्रीहर्ष, शूद्रक, हल, चंद्रगुप्त द्वितीय, शिलादित्य, यशोवर्धन आदि। दरअसल, आदित्य शब्द का अभिप्राय सूर्य देव से है । बाद में विक्रमादित्य की प्रसिद्धि के बाद राजाओं को 'विक्रमादित्य उपाधि' दी जाने लगी।
विक्रमादित्य के पहले और बाद में और भी विक्रमादित्य हुए हैं जिसके चलते भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद 300 ईस्वी में समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य हुए।
एक विक्रमादित्य द्वितीय 7वीं सदी में हुए, जो विजयादित्य (विक्रमादित्य प्रथम) के पुत्र थे। विक्रमादित्य द्वितीय ने भी अपने समय में चालुक्य साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण बनाए रखा। विक्रमादित्य द्वितीय के काल में ही लाट देश (दक्षिणी गुजरात) पर अरबों ने आक्रमण किया। विक्रमादित्य द्वितीय के शौर्य के कारण अरबों को अपने प्रयत्न में सफलता नहीं मिली और यह प्रतापी चालुक्य राजा अरब आक्रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा करने में समर्थ रहा।
पल्लव राजा ने पुलकेसन को परास्त कर मार डाला। उसका पुत्र विक्रमादित्य, जो कि अपने पिता के समान महान शासक था, गद्दी पर बैठा। उसने दक्षिण के अपने शत्रुओं के विरुद्ध पुन: संघर्ष प्रारंभ किया। उसने चालुक्यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुन: प्राप्त किया। यहां तक कि उसका परपोता विक्रमादित्य द्वितीय भी महान योद्धा था। 753 ईस्वी में विक्रमादित्य व उसके पुत्र का दंती दुर्गा नाम के एक सरदार ने तख्ता पलट दिया। उसने महाराष्ट्र व कर्नाटक में एक और महान साम्राज्य की स्थापना की, जो राष्ट्र कूट कहलाया।
#विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 15वीं सदी में सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य 'हेमू' हुए। सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के बाद 'विक्रमादित्य पंचम' सत्याश्रय के बाद कल्याणी के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। उन्होंने लगभग 1008 ई. में चालुक्य राज्य की गद्दी को संभाला। भोपाल के राजा भोज के काल में यही विक्रमादित्य थे।
विक्रमादित्य पंचम ने अपने पूर्वजों की नीतियों का अनुसरण करते हुए कई युद्ध लड़े। उसके समय में मालवा के परमारों के साथ चालुक्यों का पुनः संघर्ष हुआ और वाकपतिराज मुञ्ज की पराजय व हत्या का प्रतिशोध करने के लिए परमार राजा भोज ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसे परास्त किया, लेकिन एक युद्ध में विक्रमादित्य पंचम ने राजा भोज को भी हरा दिया था।
राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नराजा विक्रमादित्य के दरबार में मौजूद नवरत्नों में उच्च कोटि के कवि, विद्वान, गायक और गणित के प्रकांड पंडित शामिल थे, जिनकी योग्यता की चर्चा देश-विदेश में होती थी।
ये हैं नवरत्न –
1–धन्वन्तरि-
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2–क्षपणक-
जैसा कि इनके नाम से प्रतीत होता है, ये बौद्ध संन्यासी थे।
इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि प्राचीन काल में मन्त्रित्व आजीविका का साधन नहीं था अपितु जनकल्याण की भावना से मन्त्रिपरिषद का गठन किया जाता था। यही कारण है कि संन्यासी भी मन्त्रिमण्डल के सदस्य होते थे।
इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें ‘भिक्षाटन’ और ‘नानार्थकोश’ ही उपलब्ध बताये जाते हैं।
3–अमरसिंह-
ये प्रकाण्ड विद्वान थे। बोध-गया के वर्तमान बुद्ध-मन्दिर से प्राप्य एक शिलालेख के आधार पर इनको उस मन्दिर का निर्माता कहा जाता है। उनके अनेक ग्रन्थों में एक मात्र ‘अमरकोश’ ग्रन्थ ऐसा है कि उसके आधार पर उनका यश अखण्ड है। संस्कृतज्ञों में एक उक्ति चरितार्थ है जिसका अर्थ है ‘अष्टाध्यायी’ पण्डितों की माता है और ‘अमरकोश’ पण्डितों का पिता। अर्थात् यदि कोई इन दोनों ग्रंथों को पढ़ ले तो वह महान् पण्डित बन जाता है।
4–शंकु -
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इनका पूरा नाम ‘शङ्कुक’ है। इनका एक ही काव्य-ग्रन्थ ‘भुवनाभ्युदयम्’ बहुत प्रसिद्ध रहा है। किन्तु आज वह भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है। इनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् माना गया है।
5–वेतालभट्ट -
इससे एक बात यह भी सिद्ध होती है कि प्राचीन काल में मन्त्रित्व आजीविका का साधन नहीं था अपितु जनकल्याण की भावना से मन्त्रिपरिषद का गठन किया जाता था। यही कारण है कि संन्यासी भी मन्त्रिमण्डल के सदस्य होते थे।
इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें ‘भिक्षाटन’ और ‘नानार्थकोश’ ही उपलब्ध बताये जाते हैं।
3–अमरसिंह-
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4–शंकु -
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इनका पूरा नाम ‘शङ्कुक’ है। इनका एक ही काव्य-ग्रन्थ ‘भुवनाभ्युदयम्’ बहुत प्रसिद्ध रहा है। किन्तु आज वह भी पुरातत्व का विषय बना हुआ है। इनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् माना गया है।
5–वेतालभट्ट -
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विक्रम और वेताल की कहानी जगतप्रसिद्ध है। ‘वेताल पंचविंशति’ के रचयिता यही थे, किन्तु कहीं भी इनका नाम देखने सुनने को अब नहीं मिलता। ‘वेताल-पच्चीसी’ से ही यह सिद्ध होता है कि सम्राट विक्रम के वर्चस्व से वेतालभट्ट कितने प्रभावित थे। यही इनकी एक मात्र रचना उपलब्ध है।
6–घटखर्पर -
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जो संस्कृत जानते हैं वे समझ सकते हैं कि ‘घटखर्पर’ किसी व्यक्ति का नाम नहीं हो सकता। इनका भी वास्तविक नाम यह नहीं है। मान्यता है कि इनकी प्रतिज्ञा थी कि जो कवि अनुप्रास और यमक में इनको पराजित कर देगा उनके यहां वे फूटे घड़े से पानी भरेंगे। बस तब से ही इनका नाम ‘घटखर्पर’ प्रसिद्ध हो गया और वास्तविक नाम लुप्त हो गया।
इनकी रचना का नाम भी ‘घटखर्पर काव्यम्’ ही है। यमक और अनुप्रास का वह अनुपमेय ग्रन्थ है।
इनका एक अन्य ग्रन्थ ‘नीतिसार’ के नाम से भी प्राप्त होता है।
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7–कालिदास -
ऐसा माना जाता है कि कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के प्राणप्रिय कवि थे। उन्होंने भी अपने ग्रन्थों में विक्रम के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरूप निरूपित किया है। कालिदास की कथा विचित्र है। कहा जाता है कि उनको देवी ‘काली’ की कृपा से विद्या प्राप्त हुई थी। इसीलिए इनका नाम ‘कालिदास’ पड़ गया। संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से यह कालीदास होना चाहिए था किन्तु अपवाद रूप में कालिदास की प्रतिभा को देखकर इसमें उसी प्रकार परिवर्तन नहीं किया गया जिस प्रकार कि ‘विश्वामित्र’ को उसी रूप में रखा गया।
जो हो, कालिदास की विद्वता और काव्य प्रतिभा के विषय में अब दो मत नहीं है। वे न केवल अपने समय के अप्रितम साहित्यकार थे अपितु आज तक भी कोई उन जैसा अप्रितम साहित्यकार उत्पन्न नहीं हुआ है। उनके चार काव्य और तीन नाटक प्रसिद्ध हैं। शकुन्तला उनकी अन्यतम कृति मानी जाती है।
8–वराहमिहिर -
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9–वररुचि-कालिदास की भांति ही वररुचि भी अन्यतम काव्यकर्ताओं में गिने जाते हैं। ‘सदुक्तिकर्णामृत’, ‘सुभाषितावलि’ तथा ‘शार्ङ्धर संहिता’, इनकी रचनाओं में गिनी जाती हैं।
इनके नाम पर मतभेद है। क्योंकि इस नाम के तीन व्यक्ति हुए हैं उनमें से-
1.पाणिनीय व्याकरण के वार्तिककार-वररुचि कात्यायन,
2.‘प्राकृत प्रकाश के प्रणेता-वररुचि
3.सूक्ति ग्रन्थों में प्राप्त कवि-वररुचि
यह संक्षेप में विक्रमादित्य के नवरत्न थे ।
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इनके नाम पर मतभेद है। क्योंकि इस नाम के तीन व्यक्ति हुए हैं उनमें से-
1.पाणिनीय व्याकरण के वार्तिककार-वररुचि कात्यायन,
2.‘प्राकृत प्रकाश के प्रणेता-वररुचि
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यह संक्षेप में विक्रमादित्य के नवरत्न थे ।
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सूत्र- अनिरुद्ध जोशी का वेव दुनिया पर लेख से तथा मीरा मिश्रा की फेसबुक बाल से सन्दर्भ लिया गया है कुछ अंश व चित्र विक्रमादित्य विकीपीडिया से लिए गये हैं।
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