शुक्राशय की रचना- शुक्राशय असलियत में दो थैलियों जैसी रचना है जो शुक्रनाली के नीचे व ऊपर लगी होती हैं।यह एक लगभग ढाई इंच की चौड़ाई लिऐ होती हैं जिसमें शुक्र प्रणाली स्थित होती है।यह प्रणाली जहाँ शुक्राशय से मिलती हैं वहीं से सूक्ष्म पतली सी शिराऐं आरम्भ होती हैं।इन्है शुक्रवाहनी या Ejaculatoryduct कहते हैं।इसकी लम्बाई एक इन्च से कुछ कम होती है।यही शुक्रवाहिनी पुनः शुक्राशय ग्रंथि में घूम कर दोनो ओर से लिंग मूल में मूत्रमार्ग में खुल जाती है।शुक्राशय ग्रन्थि में बना वीर्य इसी मार्ग से शुक्रप्रणालियों द्वारा आकर शुक्राशय में एकत्र हो जाता है।और संभोग के समय शुक्रवाहिनी से होता हुआ मूत्रमार्ग से निकलता है।
काउपर ग्रंथियाँ- लिंग मूल में ही मूत्र विसर्जन नलिका के दोनो ओर पौरुष ग्रंथियो के शिखर से कुछ नीचे की ओऱ मटर के दाने के आकार की पीले से रंग की ग्रंथियाँ पायी जाती हैं ये ही काउपर ग्लेण्ड्स या काउपर ग्रंथियाँ कहलाती हैं।काउपर ग्रंथियों से कामोत्तेजना की अवस्था में सफेद चिकना सा पतला स्राव स्रावित होता है जो यहाँ से पैदा होकर उस स्थान पर गिरता है जहाँ मूत्र भी गिरता है अर्थात मूत्रप्रणाली में गिरता है।और इसका कार्य है मूत्र के द्वारा बनाए हुए अम्लीय वातावरण की अम्लीयता अपने में समाहित क्षार द्वारा कम करके शुक्राणुओं के जीवित रहने के लिए माहौल पैदा करना है।क्योंकि शु्क्राणु अम्लीय माहौल में जीवित नही रह सकते।औऱ यह स्राव उन्है गर्भाशय तक जीवित अवस्था में पहुचाने में सहायक है।यह शुक्र निर्माण की क्रिया विधि है जिसे पढ़कर आप बहुत कुछ जान सकते है तथा अज्ञानता वश नीम हकीमो के द्वारा वरगलाए नही जा सकेंगे।
मैरा उद्देश्य है कि विश्व में आयुर्वेद की रोशनी घरघऱ फैले लोग जाने कि भारतीय चिकत्सा प्रणाली को लोग जाने कि ऋषि मुनियों ने जिनके पास उस युग में आज के चिकित्सा शास्त्र की तरह यंत्र उपलब्ध नही थे फिर भी एसी सटीक प्रणाली उन्हौने दी कि कोई साइड इफेक्ट आज तक कोई नही बता सकता जवकि आजकल इतने यंत्रो के होने के वावजूद साइड इफेक्ट्स की भरमार है।अतः एसी प्रणाली का प्रचार करना ही नही खुद भी प्रयोग करना हमारी खासकर भारतीय समाज की यह प्राथमिकता होनी चाहिये।
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