हैपैटाइटिस रोग को लक्षणों के आधार पर हैपैटाइटिस ए ,हैपैटाइटिस बी,तथा हैपैटाइटिस नान ए या हैपैटाइटिस नान बी में बाँटा जाता है।विशेष वायरसों के आकृमण के आधार पर व रोग की वृद्धि के आधार पर इसका बँटबारा ए,बी में किया गया है।
एक्यूट हैपैटाइटिस या तीव्र यकृत शोथ-(हैपैटाइटिस ए)एक्यूट यानि एकदम होने वाला- जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूँ कि यह रोग संक्रमण संक्रमित व्यक्ति के साथ रहने से मुख से नाक से संक्रमण या फिर संक्रमित भोजन करने से फैलता है। यह रोग जीवाणुओं के संक्रमण से होता है।यह रोग अधिकतर बच्चों व युवाओं को प्रताड़ित करता है और इस रोग के लक्षण एक से छः माह तक रोगी मे प्रकट हो जाते हैं। और अचानक बुखार के साथ प्रकट होता है।धीरे धीरे पीलिया वन जाता है।कुछ दिनों तक यदि पीलिया बना रहे तो यकृत में विकृति आ सकती है फलस्वरुप यह संक्रामक रुप भी धारण कर सकता है वैसे यह रोग उपचार के उपरान्त ठीक हो जाता है।यह वैसै गंभीर व्याधि तो है किन्तु कुछ समय रहकर उपचार व परहैज से इस पर विजय प्राप्त करना बहुत कठिन नही है।
क्रानिक हैपैटाइटिस या जीर्ण यकृत शोथ अर्थात क्रानिक या पुराना यकृत शोथ-यह रोग हैपैटाइटिस ए के लम्बा समय वीत जाने पर सही ना होने पर या लगातार शरीर में बुखार बना रहने पर,संक्रमित रक्त के चढ़ाऐ जाने पर,संक्रमित रोगी के शारीरिक संम्पर्क से,इंजेक्सन आदि के लगाए जाने से या दाँत आदि की चिकित्सा के पश्चात यकृत के कोषों में व रासायनिक क्रियाओं में परिवर्तन हो जाता है।फलस्वरुप यकृत के कार्यों में भी बदलाब आ जाता है।क्योंकि तीव्र यकृत शोथ को वने हुए छः माह का समय बीत जाता है तो यह और भी जीर्ण हो जाता है अतः इसे जीर्ण यकृत शोथ भी कहा जाता है।यह इन्हीं परिवर्तनों के आधार पर दो प्रकार का होता है।
कार्निक पैरीस्टंट हैपैटाइटिस- हैपैटाइटिस ए,बी,नान ए या नान बी के ज्यादा दिनों तक वने रहने पर यकृत इस स्टेज पर आ जाता है।वृक्क व कैंसर रोगों की दवाएं तथा लम्बे समय तक दवाओं का प्रयोग भी इस स्थिति को पैदा कर देता है।लम्बे समय तक शराव का सेवन करना,जीर्ण आंत्रशोथ,वायरस जनित दस्तों का लम्बे समय तक वना रहना,आदि इस रोग को पैदा करने में सहायक है।यह रोग भी अगर परहेज रखकर इलाज कराया जाए तो यह भी कुछ समय में ठीक हो जाता है।
कार्निक एक्टिव हैपैटाइटिस (हैपैटाइटिस बी)-ऊपर वतलाए प्रकार के हैपैटाइटिस अगर छः माह तक वना रहै तो स्थिति और ज्यादा जटिल हो जाती है यकृत में सिरोसिस या कड़ापन आ जाता है।यकृत बड़ा हो जाता है।पीलिया की गंभीर स्थिति प्रकट हो जाती है और जलोदर की स्थिति प्रकट हो जाती है।रक्त में भी अनेकों परिवर्तन होकर असाध्य स्थिति एवं कैंसर की भी बन सकती है।
रोग का निदान - आयुर्वेद में रोग का निदान रोग के पूर्व लक्षणों के आधार पर भी किया जाता है।या यह कह सकते हैं कि रोग के पूर्व लक्षण रोग का निदान करने में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।तो पूर्व लक्षणों में भोजन के प्रति अरुचि, कब्ज गैस,खट्टी डकार,जी मिचलाना,पेट के दाहिने हिस्से में हल्का या तेज दर्द,अग्निमांध,सिरदर्द,डिप्रेशन,खुजली कम काम पर ज्यादा थकान का होना तथा बुखार का बना रहना जैसे लक्षण रोग की पूर्व दशाऐं हैं।इन्हीं दशाओं के आधार पर रोग का निदान किया जाता है।
रोग पश्चात लक्षण- जैसा कि मैं पहले लेख में बता चुका हूँ कि यकृत
का अगर 10 प्रतिशत हिस्सा भी सही वना रहे तो यह शरीर को स्वस्थ रखने की पूरी कोशिश
करता है किन्तु बहुत दिनों तक रोग यदि बना रहे तो निम्न लक्षण प्रकट हो जाते हैं।
कमजोरी व थकान बनी रहती है तथा बुखार बना रहता
है।मूत्र में पीलापन,पीलिया,वजन घटना,प्लीहा या तिल्ली का वढ़ना आंखों का हरी हरी होना आदि लक्षण प्रकट
हो जाते हैं।
समय वीतने पर यही लक्षण यकृत या तिल्ली का
वढ़ना,पीलिया,खुजली,जलोदर या यकृत कैंसर जैसे असाध्य रोगों तक पहुँचा देते
हैं।यकृत के खराब होने या काम न करने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती
है। और नये नये रोग शरीर को घेर लेते हैं।
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